अंग-दर्शन : रूट (1) : भागलपुर शहर

अंग-दर्शन : रूट (1) : भागलपुर शहर


1) बूढ़ानाथ मंदिर, 2) बड़ी संगत गुरुद्वारा, 3) रविन्द्र भवन 4) महाशय ड्योढी 5) बड़ी मस्जिद, 6) मां मनसा विषहरी मंदिर, 7) स्वेतंबर/ दिगंबर जैन मंदिर, 8) शहजंगी पहाड़, 9) खानकाह पीर दमड़िया, 10) फतेह जंग मकवारा, 11) नौलक्खा कोठी, 12) आनंदगढ़ पैलेस, 13) सुंदरवन गरुड़ अस्पताल, 14) कुप्पा घाट, 15) बरारी घाट राधेकृष्ण मंदिर, 16) खानकाह ए शाहबजिया.


(1) बाबा वृद्धेश्वरनाथ (बुढानाथ):

त्रेता युग में गुरू वशिष्ठ बक्सर में तारकासुर को वध करने के बाद राम-लक्षण के साथ यहाँ आए थे और यहाँ स्वयंभू भोलेनाथ (जो बालवृद्ध के रूप में विराजमान थे) के निकट अपने आश्रम का निर्माण किए थे । तब से यहाँ बाबा बुढानाथ का पूजा-अर्चना बड़ा ही श्रद्धा के साथ किया जाता है।



(2) बड़ी संगत गुरूद्वारा

भागलपुर केवल हिन्दु-इस्लाम-जैन-बुद्ध धर्मं का ही पीठस्थान नहीं रहा, बल्कि सिखों का भी एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा । नवम गुरू तेगबहादुर (1621-1675) सन 1667 में बाबा बुढानाथ गंगा घाट के निकट स्थित बड़ी संगत गुरूद्वारा आए और ऐसा माना जाता है की उनके द्वारा रचित जो 116 काव्यांश पवित्र गुरूग्र॔थ साहब में सम्मिलित किया गया है, उसके कुछ भाग का रचना यहाँ भी हुआ होगा ! भागलपुर में छोटी संगत गुरूद्वारा भी मौजूद है।


(3) रविन्द्र भवन


आइए भागलपुर : आपको रवीन्द्र भवन / क्लीवलैंड मेमोरियल/ टिल्हा कोठी बुला रहा।

"टिल्हा कोठी" का निर्माण 1773 ई में जब ईस्ट इंडिया कंपनी भागलपुर को जिला के रूप में सामने लाया तब यहाँ के पहला कलेक्टर जेम्स बार्टन के समय का बना हुआ माना जाता है। टिल्हा माने ऊँचा स्थान और कोठी माने भव्य मकान। 1779 में आगस्टस क्लीवलैंड भागलपुर के कलेक्टर नियुक्त हुए और इस भवन को अपना आवास बनाए। 16 जुलाई 1780 को ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल विलियम हेस्टिंग्स यहाँ रुके थे। क्लीवलैंड के मात्र 29 साल में देहांत हो गया था। उन्हीं के याद में यह कोठी का नाम "क्लीवलैंड मेमोरियल" पड़ा। 1910 में 13 से 15 फरवरी जब गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर भागलपुर आए तो इसी भवन में ठहरे। उनके याद में भवन का नाम "रवीन्द्र भवन" रखा गया। अभी यह बिल्डिंग तिलकामाझी भागलपुर विश्वविद्यालय के अधीन है।

(4) महाशय ड्योढी

आपको अब महाशय ड्योरी बुला रहा !
महाशय 1564 में कलेक्टर श्री राम घोष को अकबर द्वारा दिया गया सम्मानजनक वंशानुगत उपाधि था। यह एक विशिष्ट मुगल जमींदार के खुले कोर्ट यार्ड के साथ देवड़ी के निवास की स्मृति को पुनर्जीवित करता है। यहाँ पर स्थित दुर्गा मंदिर, राधा-माधव मंदिर और बटुक भैरव मंदिर के साथ साथ मुगल काल में बना कचहरी, कर संकलन स्थान आदी देखकर आप दूसरे दुनिया में चले जाएंगे।

(5) बड़ी मस्जिद

मुगलकाल के पूर्व सिकंदर लोदी (वर्ष 1488-1517) के समय वर्ष 1491 में यानी आज से 531 वर्ष पूर्व चंपानगर में मस्जिद का निर्माण हुआ। इतिहासकार आरआर दिवाकर ने अपनी किताब 'बिहार थ्रू द एजेज' में इस बात का उल्लेख किया है। तब मस्जिद में अरबी में लिखा शिलालेख भी लगाया गया था। वह आज भी सुरक्षित है और मस्जिद की दीवार में लगा है। चंपानगर मस्जिद में लगे शिलालेख की चर्चा लेखक डॉ. कयाम उद्दीन अहमद ने अपनी पुस्तक 'कॉर्पस ऑफ अरबिक एंड पर्सियन इंस्क्रिप्शन ऑफ बिहार' में भी किया है। यह मस्जिद जिला के सबसे बड़ा मस्जिद है।

(6) मां मनसा विषहरी मंदिर

आइए भागलपुर, चाँद सौदागर (चाँदो सौदागर ) द्वारा पूजा गया चम्पापुर माँ मनसा मंदिर (विषहरि स्थान) आपको मंत्रमुग्ध कर देगा । बिहुला-लोखिन्दर की कहानी जाग उठेगी और आप प्राचीन दंतकथाओं में खो जाएंगे .....

(7) स्वेतंबर/ दिगंबर जैन मंदिर

भागलपुर आइए चम्पापुर दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन मंदिर का दर्शन करने । 24 तीर्थंकरों में 12 वाँ तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य जी का पाँचों कल्यानक ( जन्म से मृत्यु तक तीर्थंकरों के पाँच लीला ) यहीं यानी चम्पापुर/चम्पानगर, भागलपुर में हुआ था जो और कहीं किसी भी तीर्थंकर का नहीं हुआ । इसलिए जैन धर्मावलम्बियों के लिए चम्पापुर सबसे महत्वपूर्ण पीठस्थान है । यहाँ सम्प्रति स्थापित एक विशाल एकल प्रस्तर से निर्मित वासुपूज्य जी की दंडायमान मुर्ति स्वतः आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।
शांति के दो पल चाहिए तो आइए चम्पापुर जैन मंदिर।

(8 ) शहजंगी पहाड़

छोटा सा पहाड़ के ऊपर स्थित मजार से आप पूरा शहर को देख पाएंगे । एक मनोरम और बेहद शांतिदायक स्थल।

(9) खानकाह पीर दमड़िया

बिहार में सूफ़ी परम्परा का इतिहास बहुत पुराना है। जनमानस में इन सूफ़ियों के प्रति ग़ज़ब की श्रद्धा आज भी देखने को मिलती है। उनके दर पर समाज के सभी वर्गों के लोग इकट्ठा होकर दुआएं और मिन्नतें मांगते हैं। “बिहार में सूफ़ी परम्परा” ( सं. डॉ. विनय कुमार) में लिखा है कि सूफ़ियों की साधना की यह तहज़ीब हिंदू-मुस्लिम एकता का माहौल तैयार करने में मदद करता है|

बिना किसी धार्मिक भेदभाव के लोगों के बीच आध्यात्म की शिक्षा प्रदान कर उन्हें मुरीद बनानेवाले सूफ़ी संतों के मज़ारों पर मुसलमानों के साथ हिंदू भी बड़ी श्रद्धा के साथ जाया करते थे और यह सिलसिला आज भी जारी है जिसका जीता-जागता उदाहरण है सूफ़ी संत पीर दमड़िया का आस्ताना। बाबा पीर दमड़िया की ख़ानक़ाह पटना-हावड़ा लूप रेल लाईन पर भागलपुर शहर (बिहार) के बीचोबीच लोहिया पुल (उल्टा पुल) के निकट स्थित है। बाबा पीर दमड़िया के प्रति मुग़लकालीन बादशाहों की विशेष आस्था रही है।

देश के पिछले 500 वर्षों के इतिहास में ख़ानक़ाह-ए-पीर दमड़िया की न सिर्फ़ धार्मिक क्षेत्र में, बल्कि कई मुग़लकालीन अहम सियासी घटनाओं में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पीर दमड़िया के वंशज से आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद जहां चौसा की लड़ाई में परास्त हुमायूं को दोबारा हिन्दुस्तान की बादशाहत हासिल हुई, वहीं इनकी शख़्सियत के आकर्षण से प्रभावित हुमायूं के प्रतिद्वंद्वी शेरशाह ने अपनी मुंहबोली भतीजी की शादी हुमायूं से करायी थी।

बादशाह हुमायूं

चूंकि हज़रत पीर दमड़िया की दुआयें बादशाह हुमायूं के साथ थीं, इसी कारण अकबर भी उनसे अक़ीदत रखता था। हुमायूं की हिदायत पर बादशाह अकबर से लेकर जहांगीर, शाहजहां जैसे बादशाह और उनके शहज़ादे न सिर्फ़ उनके हुज़ूर में आये, बल्कि गद्दी पर बैठने के बाद जागीरों के फ़रमान भी जारी किये। यह सिलसिला शाह आलम द्वितीय तक चलता रहा |

हज़रत पीर दमड़िया के प्रति मुग़ल बादशाहों की विशेष इनायत के कारण आज ख़ानक़ाह-ए-पीर दमड़िया के क़ुतुबख़ाने (पुस्तकालय) में एक हज़ार शाही फ़रमानों के साथ दस हज़ार दस्तावेज़ और एक हज़ार दुर्लभ पांडुलिपियां संरक्षित हैं। यहां संकलित मुग़लकालीन बरतनों को देख लोग मुग्ध हो जाते हैं।

यहां की लाइब्रेरी बेहद समृद्ध रही है। बताते हैं कि शाहजहां जब आगराह में क़ैद था, तो यहां से चुनिंदा किताबें मंगवाकर पढ़ता था जिसकी गवाही यहां की कुछ किताबों देती हैं, जिन पर शाहजहां के हाथों से लिखे नोट्स के साक्ष्य मौजूद हैं ।

(10) फतेह जंग मकबरा

भागलपुर: बंगाल के 1666-70 के आसपास गवर्नर रहे इब्राहिम हुसैन खान (फतेह जंग) का गंगा नदी के किनारे भागलपुर के झौवा कोठी स्थित मकबरा अपने मूल स्वरूप में आने लगा है. 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में निर्मित यह मकबरा भागलपुर शहर का पहला ऐतिहासिक धरोहर है. इसके संरक्षण व जीर्णोद्धार के लिए बिहार सरकार ने पहल की है.

पुरातत्वशास्त्री व मकबरे का जीर्णोद्धार कर रही एजेंसी के सलाहकार डॉ एसके त्यागी के मुताबिक इस मकबरा का जिक्र फ्रांसिस बुकानन की डायरी में मिलता है. बुकानन ने अपनी डायरी में लिखा है कि उत्तर मुगलकालीन स्थापत्य शैली का यह मकबरा पूर्वी भारत में सर्वोत्तम उदाहरण है. बता दें कि डॉ त्यागी तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर प्राचीन भारतीय इतिहास विभाग के शिक्षक हैं.

चूना, सुर्खी व मिट्टी के ईंट का प्रयोग
डॉ त्यागी ने बताया कि इब्राहिम खान की मृत्यु युद्ध में हुई थी. ऐसा कहा जाता है कि यहां उन्हें उनके घोड़े के साथ दफनाया गया था. कालांतर में उनके परिजनों की कब्र भी यहीं बनायी गयी. इसमें चूना, सुर्खी व कई प्रकार की मिट्टी की ईंटों का इस्तेमाल किया गया है. द्वार की चौखटें, देहरी, लिंटल, अष्टकोणीय छतरी स्तंभ आदि के निर्माण के लिए बासाल्ट (असिताश्म) पत्थर का उपयोग किया गया है.

अब बची केवल एक सीढ़ी
मकबरे के ऊपर पहुंचने के लिए दक्षिण, उत्तर व पश्चिम की ओर से सीढ़ियां बनायी गयी थी. इनमें केवल उत्तर की ओर से सीढ़ी ही बची है.

बरामदे की अनूठी है छत
बरामदे की छत एक-दूसरे से सटी हुई ईंटों के गुंबदों के माध्यम से बनायी गयी है. इस इंटरसेक्टिंग (प्रतिछेदी) गुंबदों के माध्यम से समतल छतों को बनाने का पहला नमूना मध्यकालीन भारत में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा 14वीं सदी में निर्माण करायी गयी इमारत अलाई दरवाजा (कुतुबमीनार के सामने स्थित) में मिलता है. मध्य में विशाल केंद्रीय गुंबद है, जिसके अंदर कब्रें हैं.

ऐसी थी स्थापत्य योजना
इस मकबरे में वर्गाकार चबूतरा के अंदर बरामदा है. इसके अंदर वर्गाकार कब्रगाह हैं. बरामदे में प्रत्येक दिशा में इसलामिक वास्तुशास्त्र के आधार पर पांच मेहराबें इसलाम धर्म के पांच आधार स्तंभों का प्रतीक है. बाहरी चबूतरों को धरातल से तकरीबन 12 फीट ऊंचा बनाया गया है. इसके चारों कोने पर चार बुर्ज हैं. इन बुजरे के ऊपर अष्टकोणीय छतरी का निर्माण किया गया था, जो अब विद्यमान नहीं है. फ्रांसिस बुकानन द्वारा 1810 ई में किये गये इस इस मकबरे के सर्वे के दौरान ये छतरियां विद्यमान थीं.

(11) नौलक्खा कोठी

नौलख्खा कोठी भागलपुर के बडे व्यापारी रायबहादुर सुखराज राय ने बनवाया था । बासुदेव नारायण सिन्हा द्वारा लिखित पुस्तक 'द हिस्ट्री ऑफ भागलपुर स्ट्रगल' के अनुसार भवन का निर्माण 1936 - 37 में हुआ था। उस वक्त निर्माण में नौ लाख रुपये खर्च होने के कारण यह भवन नौलखा कोठी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सुखराज के पुत्र जयकुमार एवं अभय कुमार नौलखा कोठी में ही रहकर कपड़ों का व्यापार करते थे। कपडों का राष्ट्रीयकरण यानी कंट्रोल लागू होने से भारी आर्थिक क्षति होने के कारण दोनों भाई भागलपुर छोड़ कर चले गये। इसके बाद यह संपत्ति सरकार ने अधिग्रहित कर ली । 1970 यानी अपने स्थापना वर्ष से जवाहर लाल नेहरु मेडिकल कॉलेज इसी बिल्डिंग में चल रहा है ।

(12) आनंदगढ़ पैलेस

आनंदगढ़ पैलेस, भागलपुर : ब्रिटिश हिन्दू फ्रेन्च गोथिक स्थापत्य का एक अद्भुत संमिश्रण का मिसाल है ।
बरारी एस्टेट के महाराजा उग्र मोहन ठाकुर द्वारा 1894 में निर्मित् यह भव्य ईमारत उन्नीसवी शताब्दी के अंत में भारत में फैले मिश्रित स्थापत्य शिल्प का एक अनूठा उदाहरण है । इसके क्लॉक टावर, मीनार, कर्निस् एवं आर्क ब्रिटिश स्थापत्य का निशानी है, पीछे की ओर लम्बा नुकिला आर्क गोथिक स्तापत्य से प्रभावित है, छ्हद् पर बहुलता में स्थापित कमल फूल हिन्दू भास्कर्य और बिल्डिंग की पूरब और पश्छिम में मौजूद पवित्र क्रॉस क्रिस्तिअन आर्किटेक्चर के द्योतक है । हवादार खिड़की और खिड़की स्टाइल फ्रेन्छ नमूना पेश करता है ।

अभी यह बिल्डिंग ठाकुर परिवार के आवास है।

(13) सुंदरवन गरुड़ अस्पताल

दुनिया में गरूड़ की संख्या लगभग 1200 है जिसमें 400 के आसपास "कदवा" भागलपुर में देखा जाता है जो गरूड़ प्रजनन क्षेत्र है । सुन्दरवन भागलपुर में गरूड़ पुनर्वास केन्द्र का निर्माण किया गया हैं जहाँ अस्वस्थ/चोटिल गरूड़ का इलाज होता है।

(14) कुप्पा घाट

कुप्पा घाट ( हिंदी : कुप्पाघाट) जो "सुरंगों की एक बड़ी संख्या" को दर्शाता है , भागलपुर , बिहार , भारत में पवित्र नदी गंगा के तट पर स्थित है। किंवदंतियों और पौराणिक कथाओं के अनुसार महान महर्षि ने गुफाओं में लगभग दस साल बिताए थे। गंगा के किनारे स्थित सुंदर उद्यान रामायण में अपने संदर्भ के लिए जाना जाता है।

महर्षि मेंहीं या सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज (1885-1986) 19वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने भारती (हिन्दी) प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया । उनके लेखन आधुनिक विद्वानों के साहित्यों मेंं मिला करता है। ये परम प्रभु परमात्मा, (ईश्वर, God, वाहेगुरु) की उपासना अपने शरीर के अंदर ही [बिंदु ध्यान] और नाद ध्यान की साधना द्वारा करने में विश्वास रखते थे। इन्होंने सामाजिक भेड़िया धसान भक्ति की निंदा की, सामाजिक बुराइयों (झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार) की सख़्त आलोचना अपने प्रवचनों में की, गीता में फैले भ्रामक विचारों पर इन्होंने बहुत प्रकाश डाला है।सत्संग योग की रचना कर इन्होंने यह सिद्ध कर दिया है कि सभी पहुंचे हुए संतों एवं वैदिक धर्मावलंबियों के विचारधारा एक हैं। इन्होंने संतमत परंपरा को आगे बढ़ाते हुऐ संतमत बहुत ही विस्तार किए। इसके साथ-साथ संतमत सत्संग की एक निश्चित प्रणाली का विकास करके प्रचार-प्रसार करने की नियमावली तैयार की।

(15) बरारी घाट राधेकृष्ण मंदिर

बरारी घाट स्थित ठाकुर एस्टेट की प्राचीन राधेकृष्ण ठाकुरबाड़ी स्वतः लोगों को अपने प्रति आकर्षित करता है । भव्य स्थापत्य, मनमोहक कलाकृति, शांत वातावरण सैलानियों को मंत्रमुग्ध करता है ।

(16) खानकाह ए शाहबजिया

खानगाह - ए - शाहबजिया, मुसलमानों के एक पवित्र स्‍थल है। इस स्‍थल के बारे में कई फारसी और अरबी किताबों में उल्‍लेख मिलता है। खानगाह - ए - शाहबजिया के पास में ही एक लाइब्ररी स्थित है जिसमें कई पारसी और अरबी किताबें है जो यहां की सुंदरता और महत्‍व में चार चांद लगा देती है।

खानकाह ई शाहबाजिया भागलपुर रेलवे स्टेशन के पास स्थित है। प्रत्येक गुरुवार को आध्यात्मिक आशीर्वाद के लिए सभी धर्मों के लोगों की एक सामूहिक मण्डली होती है। पर्यटक मुख्य रूप से भारत के पूर्वी भाग और बांग्लादेश सहित पड़ोसी देशों से आते हैं। इस मस्जिद का निर्माण मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब द्वारा कराया गया था और अक्सर शहबाज़ रहमतुल्ला के सूफी मंदिर से आशीर्वाद पाने के लिए सम्राट द्वारा दौरा किया जाता था। शाहबाज रहमुत्तल्ला को पवित्र 40 सूफियों में से एक माना जाता था, जिन्हें अल्लाह के संदेश को जन-जन तक फैलाने के लिए भेजा गया था। उन्हें अक्सर इस्लाम के बरेलवी संप्रदाय के अनुसार पवित्र माना जाता है। इस मस्जिद के अंदर के तालाब की पानी की सामग्री में आस्तिक के अनुसार कुछ औषधीय लाभ हैं, खासकर सांप के काटने से होने वाले इलाज के रूप में। यह भी कहा जाना अच्छा है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस खानकाह के तहखाने से कुछ मूल्यवान पांडुलिपियों को पाया है जो मुगल काल में वापस डेटिंग करते हैं।

खानकाह शहबाजिया के गद्दीनशीं को मिलती थी पेंशन

चार सौ साल पुराना खानकाह शहबाजिया ऐतिहासिक साक्ष्यों का गवाह है। यहां न केवल मुगल बादशाहों का आगमन हुआ था बल्कि मुगल शासक शहबाज मुहम्मद भागलपुरी से फतवा मंगा कर दिल्ली में धार्मिक फैसले भी लेते थे।

चार सौ साल पुराना खानकाह शहबाजिया ऐतिहासिक साक्ष्यों का गवाह है। यहां न केवल मुगल बादशाहों का आगमन हुआ था बल्कि मुगल शासक शहबाज मुहम्मद भागलपुरी से फतवा मंगा कर दिल्ली में धार्मिक फैसले भी लेते थे। अंग्रेज शासनकाल में खानकाह के गद्दीनशीं को पेंशन भी दी जाती थी जो स्वतंत्रता के कई वर्षो बाद तक जारी भी रही। कई मुगल बादशाहों ने शहर व आसपास के क्षेत्रों में सैकड़ों बीघा जमीन खानकाह व मदरसा के रख-रखाव के लिए दी थी। खानकाह की सारी संपत्तियों के मालिक गद्दीनशीं होते हैं, इस कारण खानकाह, आस्ताना और 400 साल पुराने जामिया शहबाजिया मदरसा की देखभाल तथा संचालन उनकी जिम्मेदारी होती है।

अंग्रेज शासक ने 1942 में तत्कालीन गद्दीनशीं सैयद शाह सफीउल आलम शहबाजी के समय पेंशन देना शुरू किया था। 1947 में देश आजाद हुआ। फिर बिहार सरकार के आदेश पर जिला प्रशासन ने भी वजीफा देना जारी रखा। 1985 में तत्कालीन जिलाधिकारी ने पेंशन बंद कर दिया। सफीउल आलम शहबाजी के बाद सैयद शाह इश्तियाक आलम शहबाजी गद्दीनशीं बने फिर वर्तमान गद्दीनशीं सैयद शाह इंतखाब आलम शहबाजी। पेंशन की शुरुआत नहीं हो पाई।

हजरत मखदूम शहबाज मुहम्मद भागलपुरी के छोटे पुत्र सैयद सफी सियालकोटी से गद्दीनशीं बनने की परंपरा शुरू हुई। जो आज तक जारी भी है। गद्दीनशीं के वंशज के सिलसिले के वैसे व्यक्ति जिनके माता और पिता दोनों सैयद (नजीबुन्नतरफैन) होंगे वही गद्दीनशीं बन सकते हैं। गद्दीनशीं को उपनाम 'मियां साहब' होता है। खानकाह शहबाजिया के गद्दीनशीं खानकाह के आसपास 19 बीघा के क्षेत्र से बाहर नहीं जा सकते। हज करने या फिर इलाज कराने के उद्देश्य से ही वह निर्धारित 19 बीघा के क्षेत्रफल से बाहर जा सकते हैं।

गद्दीनशीं के अधिकार
पूर्व गद्दीनशीं सैयद शाह इश्तियाक आलम शहबाजी उर्फ अमन बाबू ने 1997 में (तब वली अहद थे) अपनी पुस्तक सुल्तानुल आरफीन में गद्दीनशीं के अधिकारों और जिम्मेदारियों का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है, खानकाह से जुड़ी सारी संपत्तियों जमीन, मकान, आस्ताना, मस्जिद, तबर्रुकात, मदरसा और मजारात के मालिक गद्दीनशीं होते हैं। जमीन या किसी भी संपत्ति को गद्दीनशीं के अलावा खानकाह से जुड़े किसी भी व्यक्ति को बेचने का कानूनी अधिकार नहीं है। सारी संपत्तियों की देखरेख करना गद्दीनशीं की जिम्मेदारी होती है। खानकाह से जुड़े कार्य और सालाना उर्स आदि का संचलन गद्दीनशीं की देखरेख में ही किया जाना है।

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** उक्त 16 स्थानों के अलावा शरत चंद्र के नानी घर, अशोक कुमार/किशोर कुमार के नानी घर, घुरन पीर बाबा स्थान, हाथ कटोरा पीर बाबा, जयप्रकाश उद्यान, लाजपत पार्क, स्वामी विवेकानंद साधना स्थल, क्लीवलैंड मेमोरियल, गंगा ब्रिज के साथ साथ वर्षा ऋतु में गंगा के किसी भी घाट से डॉल्फिन देखना बड़ा ही सुखदायी पल होता है।

लेखक: देबज्योति मुखर्जी 
Social Entrepreneur, Entreprship Dev. Activist , Life Skill Trainer & Mentor 
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My hobby is blogging. I do blog everyday.

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